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अ॒ग्निर्मू॒र्द्धा दि॒वः क॒कुत्पतिः॑ पृथि॒व्याऽअ॒यम्। अ॒पा रेता॑सि जिन्वति ॥१२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ग्निः। मू॒र्द्धा। दि॒वः। क॒कुत्। पतिः॑। पृ॒थि॒व्याः। अ॒यम्। अ॒पाम्। रेता॑सि। जि॒न्व॒ति॒ ॥१२॥

यजुर्वेद » अध्याय:3» मन्त्र:12


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अगले मन्त्र में अग्नि शब्द से ईश्वर और भौतिक अग्नि का प्रकाश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अयम्) जो यह कार्य कारण से प्रत्यक्ष (ककुत्) सब से बड़ा (मूर्द्धा) सब के ऊपर विराजमान (अग्निः) जगदीश्वर (दिवः) प्रकाशमान सूर्य आदि लोक और (पृथिव्याः) प्रकाशरहित पृथिवी आदि लोकों का (पतिः) पालन करता हुआ (अपाम्) प्राणों के (रेतांसि) वीर्यों की (जिन्वति) रचना को जानता है, उसी को पूज्य मानो ॥१॥ (अयम्) यह अग्नि (ककुत्) सब पदार्थों से बड़ा (दिवः) प्रकाशमान पदार्थों के (मूर्द्धा) ऊपर विराजमान (पृथिव्याः) प्रकाश रहित पृथिवी आदि लोकों के (पतिः) पालन का हेतु होकर (अपाम्) जलों के (रेतांसि) वीर्यों को (जिन्वति) प्राप्त करता है ॥२॥१२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जो जगदीश्वर प्रकाश वा अप्रकाशरूप दो प्रकार का जगत् अर्थात् प्रकाशवान् सूर्य आदि और प्रकाशरहित पृथिवी आदि लोकों को रच कर पालन करके प्राणों में बल को धारण करता है तथा जो भौतिक अग्नि पृथिवी आदि जगत् के पालन का हेतु होकर बिजुली जाठर आदि रूप से प्राण वा जलों के वीर्यों को उत्पन्न करता है ॥१२॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथाग्निशब्देनेश्वरभौतिकावुपदिश्येते ॥

अन्वय:

(अग्निः) सर्वस्वामीश्वरः। प्रकाशादिगुणवान् भौतिको वा (मूर्द्धा) सर्वोपरि विराजमानः (दिवः) प्रकाशवतः सूर्यादेर्जगतः (ककुत्) महान्। ककुह इति महन्नामसु पठितम्। (निघं०३.३) ककुहशब्दस्य स्थाने ककुत्। पृषोदराद्याकृतिगणान्तर्गतत्वात् सिद्धः (पतिः) पालयिता, पालनहेतुर्वा (पृथिव्याः) प्रकाशरहितस्य पृथिव्यादेर्जगतः (अयम्) निरूपितपूर्वः (अपाम्) प्राणानां जलानां वा। आप इति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.३) अनेन चेष्टादिव्यवहारप्रापकाः प्राणा गृह्यन्ते। आप इत्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (रेतांसि) वीर्याणि (जिन्वति) रचयितुं जानाति, प्रापयति वा। जिन्वतीति गतिकर्मसु पठितम्। (निरु०२.१४)। अयं मन्त्रः (शत०२.३.४.११) व्याख्यातः ॥१२॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्या ! यूयं योऽयं ककुन्मूर्द्धाग्निर्जगदीश्वरो दिवः पृथिव्याश्च पतिः पालकः सन्नपां रेतांसि जिन्वति स्रष्टुं जानाति, तमेव पूज्यं मन्यध्वमित्येकः ॥ योऽयमग्निः ककुद्दिवो मूर्द्धा पृथिव्याश्च पतिः पालनहेतुः सन्नपां रेतांसि जिन्वति, स सुखं प्रापयतीति द्वितीयः ॥१२॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषालङ्कारः। यो जगदीश्वरः प्रकाशाप्रकाशवद्विविधं जगदर्थात् प्रकाशवत् सूर्यादिकमप्रकाशवत् पृथिव्यादिकं च रचयित्वा पालयित्वा प्राणेषु बलं च दधाति, तथा योऽयमग्निः पृथिव्यादिजगतः पालनहेतुर्भूत्वा विद्युज्जाठरादिरूपः प्राणानां जलानां वीर्याणि जनयति, स एव सुखसाधको भवतीति ॥१२॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. जो जगदीश्वर प्रकाशस्वरूप व प्रकाशहीन असे दोन प्रकारचे जग अर्थात प्रकाशस्वरूप सूर्य व प्रकाशहीन पृथ्वी इत्यादी गोलांची रचना करून त्यांचे पालन करतो व प्राणशक्तीrला धारण करतो तसेच जो भौतिक अग्नी जगाच्या पालनाचे कारण असून विद्युत व जठराग्नी इत्यादी रूपाने प्राण व जल (वीर्य) इत्यादींनाही उत्पन्न करतो. त्याच्यापासूनच सर्व सुख प्राप्त होते.